उत्तराखंड की बोलियों पर गहराता संकट

डॉ. बिहारीलाल जलंधरी द्वारा “दिल्ली में गढवाली कुमाउनी की बधाण पूजै सम्पन्न” पोस्ट में उनकी चिंताओं को समझने का प्रयास दो दिनों तक करता रहा। इसलिए कुछ लिखने से बचता रहा कि अनावश्यक मंतव्य खड़ा न हो जाय। फिर लगा कि यह समाजनिष्ठ चिंतन है इसलिए इस विषय पर किसी अन्य चिंतक का कोई सारपूर्ण विचार न देखकर मुझे लगा अपना मंतव्य प्रकट कर दूं।

“बधाण पूजै” अपने-अपने लोगों के लिए उन सभी आयोजनों में होती ही है जिनका लक्ष्य निजित्व को स्थापित करना होता है। कुछ कार्यक्रमो की नियति यही होती है। इसमें स्रोत की महत्ता होती है। इसलिए आकांक्षाओं का दृष्टिकोण भी उसी प्रकार रखना चाहिए। मुख्य बात यह है कि डॉ. जलंधरी की चिंता उत्तराखंडी भाषा को लेकर है। मेरा निवेदन है डॉ. साहब को एक अजन्मी भाषा की अपेक्षा अस्तित्वधारी भाषाओं की दशा पर अपना चिंतन व्यक्त करना चाहिए।

गढवाली, कुमाउनी, जौनसारी और उनकी उपबोलियों पर जो संकट मंडरा रहा है उन्हें बचाने के प्रयास उन्ही लोगों को करने होंगे, जिस अंचल की वे बोलियां हैं। नव जागरण काल में जब व्यक्ति समुदाय से जुड़े रहने की बजाय हिरण की तरह निजी कुलांचें भर रहा है, समाज का ताना-बाना टूट रहा है तब किस से उम्मीद की जाय कि वह उत्तराखंड की बोलियों को सीखे। उत्तराखंड की लगभग 50 लाख जनसंख्या अपने मूल स्थान से बाहर (अन्यत्र) रहती है। शहर में रहने वाले हिंदी,अंग्रेज़ी या कोई स्थानीय भाषाएं बोलते हैं। धीरे-धीरे उनके वैवाहिक संबंध भी बाहर होने लगे हैं। ऐसे में हमें हमारी उन बोलियों को बचाने की आवश्यकता है जो भाषा लुप्त होने के कगार पर हैं।

दिल्ली सरकार ने गढ़वाली, कुमाउनी, जौनसारी भाषाओं की अकेडमी बनाई, उस अकेडमी ने उन भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए क्या कुछ किया यह बात अनुसंधान की भी है और चिंतन की भी है। वोट का दीपक जनता के हाथ में पकड़ा दिया कि ध्यान रखना, दिया बुझना नही चाहिए। क्या इस अकेडमी के पास इन भाषाओं के संबंध में सभी अकादमिक सूचनाएं हैं।यथा-साहित्य, संगीत, संस्कृति, नाटक, आदि को बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रमों की योजना, दिल्ली में इन बोलियों से संबंधित लेखकों, साहित्यकारों- कवियों, गीतकारों,कहानीकारों आदि का विस्तृत रिकॉर्ड जिससे यह पता चल सके कि कौन-कौन लोग इन बोलियों में कुछ अलग से कर रहे हैं।

गढ़वाली, कुमाउनी व जौनसारी में गीत संगीत और नाटक विधाओं में काम करने वाली प्रतिभाओं की खोज के लिए क्या उपाय किये गए हैं या किये जा रहे हैं इस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। अगर यह अकेडमी स्वतंत्र नही तो भी गलत और यदि अकेडमी राजनीतिक उद्देश्यों के लिए है तो भी छलावा है।
गढ़वाली, कुमाउँनी व जौनसारी बोलियों के लिए अलग-अलग कार्यशालाएं लगाना बुरी बात नही। जो भी जितना सीख सके उतना अच्छा है। मिलावटी बोलियों को सीखने में कठिनाई होती है। वैसे भी भाषा एक मात्र वह विधा है जिसमें विद्वानों ने हस्तक्षेप किया और भाषा सूख गई।

संवैधानिक शपथ के लिए भाषाई प्रावधान हैं। गढ़वाली अभी इस श्रेणी में नही है। यह बात सही है कि इन भाषाओं के नाम पर अकेडमी तो बना दी लेकिन अकेडमी जैसा कुछ दिखाई नही दिया। आपने बधाण पूजै शब्द का बहुत ही उपयुक्त उपयोग किया है। इसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।

(कृपया कोई भी इस चिंतन को अपने कद के साथ न जोड़ें ये मेरे निजी विचार हैं- पार्थसारथि थपलियाल)

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