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जोधपुर,होलिका दहन के अगले दिन धुलंडी का त्योहार आता है। धुलंडी को धुरड्डी, धुरखेल, धूलिवंदन और चैत बदी आदि नामों से जाना जाता है। होली के अगले दिन धुलंडी को पानी में रंग मिलाकर होली खेली जाती है तो रंगपंचमी को सूखा रंग डालने की परंपरा है। कई जगह इसका उल्टा होता है। ज्योतिषी और हस्तरेखा विद राजेन्द्र गुप्ता के अनुसार पुराने समय में धुलंडी के दिन टेसू के फूलों का रंग और रंगपंचमी को गुलाल डाला जाता था। सूखा रंग उस घर के लोगों पर डाला जाता हैं जहां किसी की मौत हो चुकी होती है।

क्यों मनाते हैं धुलंडी

कहते हैं कि त्रैतायुग के प्रारंभ में विष्णु ने धूलि वंदन किया था। इसकी याद में धुलंडी मनाई जाती है। धूल वंदन अर्थात लोग एक दूसरे पर धूल लगाते हैं। यह भी कहते हैं कि इस दिन से ब्रज में श्रीकृष्ण ने ‘रंग उत्सव’ मनाने की परंपरा का प्रारंभ किया था। तभी से इसका नाम फगवाह हो गया, क्योंकि यह फागुन माह में आती है। कृष्ण ने राधा पर रंग डाला था। श्रीकृष्ण ने ही होली के त्योहार में रंग को जोड़ा था।

कैसे मनाते हैं धुलेंडी

होली के अगले दिन धुलंडी के दिन सुबह के समय लोग एक दूसरे पर कीचड़, धूल लगाते हैं। पुराने समय में यह होता था जिसे धूल स्नान कहते हैं। पुराने समय में चिकनी मिट्टी की गारा का या मुलतानी मिट्टी को शरीर पर लगाया जाता था। शाम को लोग अबीर और गुलाल आदि रंग एक दूसरे पर डालते हैं। पुराने समय में धुलंडी के दिन टेसू के फूलों का रंग बनाकर एक दूसरे पर लगाया जाता था।

ढोल बजा कर होली के गीत गाए जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। गले मिलकर एक दूसरे को मिठाइयां खिलाते हैं।
राग-रंग के बाद कुछ लोग भांग खाते हैं और कुछ लोग भजिये या गुझिया बनाकर ठंडाई का मजा लेते हैं। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है।

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