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पितृपक्ष : पूर्वजों का पखवाड़ा

पितृपक्ष : पूर्वजों का पखवाड़ा

संस्कृति

-पार्थसारथि थपलियाल

विश्व में विभिन्न मतों के अनुयायी किसी न किसी रूप में अपने पूर्वजों का स्मरण करते हैं। उसका आधुनिक रूप समारोह आयोजित कर पुण्य तिथि मनना हो गया है। जिसमें उस व्यक्ति के चित्र पर पुष्पांजलि देना और व्यक्ति की महानताओं का वर्णन किया जाता है। भारत की सनातन संस्कृति समावेशी (Inclusive) संस्कृति है। यह केवल अपना ही चिंतन नही करती बल्कि उनकी भी चिंता करती है जो हमारे जीवन में नही रहे। संभव है जो सनातन संस्कृति की परंपराओं से अनभिज्ञ हैं उन्हें यह विचार विष की तरह लगे। लगे तो लगे, फिलहाल इस तर्क कुतर्क में नही उलझना है और इस परंपरा से उन्हें अवगत कराना है जिनकी इसमें रुचि है।

ऋग्वेद,यजुर्वेद,छान्दोग्य उपनिषद, ऐतरेय ब्राह्मण, श्रीमद्भगवत गीता में आत्मा और परमात्मा पर विस्तार से पठनीय सामग्री है। सनातन संस्कृति में यह माना गया है कि मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण हैं। ये हैं-देवऋण,ऋषि ऋण और पितृऋण। मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ(धर्म,अर्थ,काम व मोक्ष) नियत हैं। इनके अनुरूप कार्य करने से अंतिम लक्ष्य मोक्ष (liberation) प्राप्त करना है, मुक्त होना है।

इसीलिए विद्या के महत्व के बारे में कहा गया है- सा विद्या या विमुक्तये।। समस्त ब्रह्मांड का नियंता एक ईश्वर है इसका उद्घोष वेदों और उपनिषदों में हुआ है। (यजुर्वेद/ईशोपनिषद को पढ़ सकते हैं) ईश्वर और देवता एक नही हैं। कृपया देवता,भगवान और पितर भी एक नही हैं। ये सिद्ध शक्तियां हैं। ये परमेश्वर नही हैं। परमेश्वर पंचतत्व के कण-कण में समाहित है। देवऋण शब्द का अर्थ है दिवतों का ऋण। इसे विष्णु ऋण भी कहते हैं। इससे उऋण होने का मार्ग विष्णु भक्ति है। प्रभु स्मरण है। ऋषिऋण को शिवजी का ऋण भी कहा जाता है। ऋषियों से हमें गूढ़ ज्ञान मिला। हम उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करें। इसके लिए स्वाध्याय का मार्ग बताया गया है। गुरूओं से शिक्षा प्राप्त करें। शिक्षित होने के अनुसार आचरण करें। प्राप्त ज्ञान को विस्तार दें। तीसरा ऋण है पितृऋण। हमारा जीवन हमारे पूर्वजों के कारण ही है। इस ऋण को ब्रह्मा जी का ऋण भी कहा जाता है। हम अपने पूर्वजों का सम्मान करें, उनकी स्मृतियों को मन मे बसाए रखें।

श्राद्ध पक्ष (भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर कृष्णपक्ष अमावस्या तक) में उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें तर्पण दें। दान, पुण्य करें, किसी को न सतायें, किसी को न दुखाएं। इस वर्ष पितृपक्ष 10 सितंबर से 25 सितंबर तक है। इस दौरान सनातन संस्कृति के लोग अपने पूर्वजों को उनकी पुण्य तिथि पर स्मरण करेंगे। इस विशेष स्मरण को श्राद्ध कहते हैं। किसी व्यक्ति की जिस तिथि को मृत्यु होती है वही तिथि श्राद्ध पक्ष में मृतक व्यक्ति की श्राद्ध तिथि होती है। चाहे वह तिथि कृष्ण पक्ष की हो या शुक्ल पक्ष की। पूर्णिमा से अमावस के बीच सभी तिथियां आ जाती हैं। कई बार एक दिन में दो तिथियां आ जाती हैं। जैसे एक तिथि (पंचमी/ पंचम) जो गत दिवस शाम 6 बजे शुरू हुई वह तिथि 2 बजे तक चली उसके बाद अगली तिथि (षष्ठी/षष्टम) शुरू होगी। अतः जिन पूर्वजों का षष्ठी का श्राद्ध होना है वे षष्ठी तिथि में आज अथवा कल, षष्ठी तिथि समाप्ति से पहले तर्पण और भोजन करा सकते हैं।

तर्पण के लिए जल मिश्रित दूध में जौ तिल डाल कर संकल्प कर तीन पीढ़ी के पूर्वजों के नाम स्मरण कर एक थाल या परात में विधिविधान से तर्पण दिया जाता है। (तर्पण विधि पुस्तक को देख सकते है) जैसे पिताजी का श्राद्ध है तो पिता, पितामह, प्रपितामह के नाम लेकर जल दिया जाता है। यही नहीं नाना पक्ष के भी पूर्वजों को स्मरण करने का समय यही होता है।

मातामही तृप्यन्ताम। परमातामही तृप्यन्ताम। कुल खानदान में ज्ञात अज्ञात के नाम से भी तर्पण दिए जाते हैं। यही नही धरती पर जो कोई अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गए, जिनका तर्पण देने वाला कोई नही है उनके कल्याण के लिए भी तर्पण दिए जाते हैं। यह है भारतीय संस्कृति जो समस्त प्राणियों के साथ कुटुंब भाव रखती है। तर्पण देने के बाद देवताओं, ऋषियों और पितरों के नाम से घर में तैयार भोजन में से थोड़ा थोड़ा निकाल कर पत्ते अथवा पत्तल या दोने में रखकर घर की छत पर कौवों के लिए रख देते हैं। एक पत्तल में गाय के लिए, कुत्ते के लिए और चींटियों के लिए भोजन रखकर दिया जाता है। उसके बाद ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। विवाहित बेटियां, दामाद, उनके बच्चे आदि भी इसी श्रेणी में आते हैं। भोजन कराने के बाद दक्षिणा देकर विदा किया जाता है। (कुछ न हो तो अनाथाश्रम में या वृद्धाश्रम में भी इस निमित दान दिया जा सकता है।) तदन्तर घर के लोग भोजन करते हैं। यह एक सनातन परंपरा है।

इस परंपरा का जिक्र बादशाह शाहजहाँ ने भी किया है। औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को आगरा में बंदी बनाकर रखा था। जहां शाहजहाँ को सीमित मात्रा में पीने का पानी मिलता था। उसने औरंगजेब को संदेश भिजवाया कि इतने पानी से गुजर नही होता। पानी की मात्रा बढ़ा दें। औरंगजेब ने मना कर दिया। तब शाहजहाँ ने कहा था तुम से अच्छे तो हिन्दू हैं जो मरने के बाद भी अपने मुर्दों (पूर्वजों) को पानी देते हैं।

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