माँ की सूरत में मिले भगवान
अंतराष्ट्रीय मातृ दिवस विशेष
संस्कृति
पार्थसारथि थपलियाल
“माँ” एक ऐसा शब्द है,जो केवल नारी का ही सम्मान नही बढ़ाता है बल्कि भारतीय संस्कृति में इसी शब्द ने धरती का भी गौरव बढ़ाया है। वेद की ऋचा कहती है- “माता भूमि पुत्रोहम पृथिव्या”। जो ममता की मूरत और दया का सागर है, जो अनंत खुशियों का भंडार है, भले ही उसके अपने दुःख हज़ार हैं, उसका वात्सल्य रक्षा कवच है और उसका गुस्सा चट्टान से निकलता नीर है। बकौल शाइर मुनव्वर राणा-
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है।
नारी ईश्वर की अनुपम रचना है, जो कोमल है लेकिन कमजोर नही है, उसमे सबको साथ रखने, पालने, उचित मार्ग दिखाने की क्षमता है। वह हर संबंध में पुष्प की तरह खिलती है परियों की तरह खिलखिलाती है। बेटी के रूप में वह घर आंगन की खुशी होती है। उसके जाने से घर की खुशी काफूर होती है। दीदी बनकर वह दुलारती है, वही तो है जो भाई बहनों पर इठलाती है। दुल्हन रूप उसका गरिमामय होता है, उसकी विदाई नए जीवन की दुआओं की लड़ी होती है। बहू बनके नए रूप को धारण किया, नए घर मे नई सोच को पायदान दिया। संस्कार लिए घर के, विस्तार दिया सबको
गरिमा बढ़ाई घर की, बड़े पंख दिए सबको। माँ बनके खुशियों के अंबार लगे घर में, नया नाम मिला घर में, “माँ” शब्द बसा धड़कन में। गीले में खुद लेटी, सूखे में सुलाती है, संतान जो रोये तो आंखों में बसा देती है। संकट को मिटाती है, रिश्तों को निभाती है, परिवार की गरिमा को कालिख न लगने दी, संस्कार की क्यारी को महका दिया घर में।। सासू बने जब तो मर्यादा बताती है, दादी बने तो लोरी, गा गा के सुलाती है।
दुर्गा सप्तशती में यह श्लोक माँ की महत्ता लिए हुए हैं-
या देवी सर्व भूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
महाभारत में वेदव्यास जी ने लिखा है–
नास्ति मातृ समा छाया, नास्ति मातृ समा गति।
नास्ति मातृ समं त्राण, नास्ति मातृ समा प्रिया।।
ईश्वर देह रूप में आ नही सकता था इसीलिए उसने माँ की कल्पना की होगी। उसकी दुआएं बचाये रखती हैं बलाओं से। इसीलिए मुनवर राणा ने लिखा-
अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है।।
सनातन संस्कृति में में माँ का स्थान देवताओं से ऊपर बताया गया है इसीलिए तैतरियोपनिषद में लिखा मिलता है- मातृ देवो भव:। अमेरिका की एना जार्विस ने इस दिन को अपनी माँ की याद में मनाना शुरू किया था। 1914 से अमेरिका में सरकार द्वारा मई माह का दूसरा रविवार इसके लिए तय किया आज अनेक देशों में मनाया जाने लगा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां ग्राहकों को अपने ढंग से मनाने को प्रेरित करती हैं, वरना माँ हमारी हर सांस में होती है। उसकी छाया बनी रहे।
1966 में एक फीचर फिल्म आई थी-दादी माँ। इस फ़िल्म में मजरूह सुल्तानपुरी का एक गीत था, उससे बढ़कर सरल शब्दों में माँ को कैसे सम्मान दिया जा सकता है-
उसको नहीं देखा हमने कभी
पर इसकी ज़रुरत क्या होगी
ऐ माँ, ऐ माँ तेरी सूरत से अलग
भगवान की सूरत क्या होगी, क्या होगी
उसको नहीं देखा हमने कभी।।
चलते चलते ये भी बता दूं, इसी महीने मेरी माँ सौ साल की हो गई। माँ देहरादून में भाई साहब के पास रहती है। अप्रैल के तीसरे हफ्ते में माँ का सौवां दिन मनाया। आज के दिन मेरी मां सहित सभी माताओं को नमन।
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