अतिक्रमण: दर्द भरे दिल की जुबां, जाएं तो जाएं कहाँ?

पार्थ सारथि थपलियाल

पहाड़ी जिंदगी भी क्या ज़िंदगी है, दिखती है हसीनों की तरह, होती है मुफलिसी की तरह। चार दिन के लिए इन पहाड़ों में मटरगस्ती के लिए जानेवाले जब कहते हैं-यह तो देवभूमि है यहां के लोग न जाने क्यों शहरों की ओर जा रहे हैं? पहाड़ों जैसी समस्याएं जिन घाटियों में टिकी हैं। घाटियों के अफसाने और दर्द भरी कहानियां अक्सर इन घाटियों में बहनेवाली नदियों के कोलाहल में
अनसुनी शिकायत सी रह जाती हैं। लाचार आदमी की व्यथा कौन सुनें-
सुला दिया माँ ने भूखे बच्चे को ये कहकर
परियां आएंगी सपनों में रोटियां लेकर।।
न रोटियां आएंगी न नींद आएगी। गरीब तो मेहनत पर भरोसा करता है लेकिन किस्मत कब ऐसा होने देती है?

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उत्तराखंड में इन दिनों अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाया जा रहा है। यह अभियान बहुत अच्छा है। उतना ही जितना भारतीय इतिहास में बादशाह मोहम्मद तुगलक की नीतियों का बखान है। राजनीति वाले इस तरह का अतिक्रमण हटाओ अभियान मजबूरी में ही चलते होंगे अन्यथा उन्हें भय होता है कि अगले चुनाव में बिस्तर गोल होना पक्का है। कई बार कॉलेजियम के मार्फत न्याय की देवी के मंदिर के पुजारी भगवान (जनता) की खुजली ऐसी जगह कर देते है जो खाज पूरे शरीर में फैल जाती है। मणिपुर में दंगों का मुख्य कारण ऐसा ही न्यायिक आदेश था। उत्तराखंड मे अतिक्रमण हटाओ के नाम पर बुलडोजर की बेरहमी ने हज़ारों लोगों का जीवन पहाड़ सी समस्या के रूप में खड़ा कर दिया।

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बेरोज़गारी से उत्तराखंड सर्वाधिक पीड़ित है। केवल गढ़वाल में 3000 से अधिक गांव जनविहीन हो चुके हैं। अगले 10-15 सालों में पौड़ी जिला लगभग आधा खाली हो जाएगा। यहाँ रहे सहे लोगों को भगाने का काम अतिक्रमण हटाओ अभियान ने पूरा कर दिया। बरसों पहले सड़क मार्ग बनने के बाद बसों से आने जाने वाले लोगों के बस स्टॉप बनते गए। आसपास के लोगों ने चाय और छोटी मोटी वस्तुओं की दुकानें सड़क के निकट स्थापित की। छोटा सा कस्बा बनता गया। ज्वालपा देवी का चिन्हित बाजार, पाटीसैण, गुमखाल आदि सड़कों के किनारे की अतिक्रमित दुकानों पर चल रही कार्यवाही इसके प्रमाण हैं। अपने बाल बच्चों का भरण पोषण का उनका रोजगार उनके सामने वैसे ही छीना जा रहा है जैसे उत्तराखंड में घर के आंगन में खेल रहे बच्चे को बाघ अपने पंजे से खींचकर जबड़े से घसीटता ले जाता है। एक तरफ जंगली जानवरों के जबड़े में जाने का भय दूसरी ओर बुलडोज़र के पीले पंजे का भय।

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बहुत पहले एक फीचर फिल्म आयी थी टैक्सी ड्राइवर, इस फ़िल्म में एक गीत था-
जाएं तो जाएं कहां, जाएं तो जाएं कहां
समझेगा कौन यहाँ, दर्द भरे दिन की जुबां
जाएं तो जाएं कहाँ….?

ये कैसा लोकतंत्र है? जहां न लोक है न तंत्र। जहां लोकजीवन में समानताएं लाने के उपाय होने चाहिए वे तो हो नही पाते, मैदानी भागों के नियम पर्वतीय क्षेत्र की सड़कों पर अनाप सनाप क्यों लागू किये जा रहे हैं? एक बात समझ से बाहर है जब अतिक्रमण हो रहा होता है उस समय उसे रोका क्यों नही जाता। शासन लाठी और बुलडोजर के बल पर कामयाब तो हो जाएगा लेकिन लोकतंत्र की हत्या हो चुकी होगी। पर्वतीय क्षेत्रो में मैदानी इलाकों जैसे राष्ट्रीय राजमार्ग और राज्यराज मार्ग की दोनों किनारों का खाली होना शत प्रतिशत कैसे संभव है? एक तरफ पहाड़ होगा और दूसरी तरफ सीढ़ी नुमा खेत या खड्ड! सरकार के इस रवैये से दुखी लोग गढ़वाल छोड़कर बाहर निकल जाएंगे। शासन प्रशासन की उपलब्धि इन लोगों को बेरोजगार, बेघरबार करना, पलायन के लिए मजबूर करना होना चाहिए या इन स्थानीय प्रभावित लोगों का पुनर्वास कर पलायन रोकना? दूसरी बात यह कि बुलडोजर के आने से पहले इन छोटे छोटे कारोबारियों के स्थानीय रोजगार की व्यवस्था क्यों नही की गई? राजनीतिक दलों को आगे आना चाहिए और इन प्रभावित लोगों की सहायता करनी चाहिए। ये लोग हिमालय के रक्षक हैं। ये लोग भारतीय संस्कृति के संवाहक हैं। इन लोगों के देवत्व भाव की रक्षा करना अति आवश्यक है। गढ़वाल के पलायन को रोकने के लिए यह भी किया जाना चाहिए जो लोग पलायन कर चुके हैं लेकिन वे किसी सुविधायुक्त स्थान पर बसना चाहतें हैं उन्हें सरकार की ओर से समुचित सहायता दी जानी चाहिए।
मुनव्वर राणा का एक शेर है-
गरीबों पर तो मौसम भी हुकूमत करते रहते हैं
कभी बारिश कभी गर्मी कभी ठंडक का कब्जा है।

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