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शब्द संदर्भ:- (89) दक्षिणा और प्रदक्षिणा
लेखक:- पार्थसारथि थपलियाल
जिज्ञासा
चमोली से विजय पुरोहित ने व्हाट्सएप पर लिखा है कि, दक्षिणा, दान और प्रदक्षिणा के बारे में बताएं।
(इस अंक में केवल और दक्षिणा विषय पर)
समाधान
दक्षिणा शब्द दक्षिण शब्द का ही विस्तार है। दक्षिणा वह भेंट है जो हम अपने प्रति शुभकामनाएं रखनेवालों, शुभ कार्य करनेवालों को उनके आशीर्वाद के लिए प्रसन्नता के प्रतीक दाहिने हाथ से देते हैं। दक्षिणा के दो भाव है। पहला है गुरु के प्रति समर्पण और दूसरा गुरु द्वारा दिये गए ज्ञान को विस्तार देना।
1. प्राचीन श्रुतियों और आख्यानों में दक्षिणा के अनेक संदर्भ मिलते हैं।
एक संदर्भ विष्णु अवतार भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ा हुआ भी बताया जाता है। गोलोक में राधा की एक सखी सुशीला थी, जिस पर श्रीकृष्ण रीझ रहे थे, राधा को यह उचित नही लगा और सुशीला को गोलोक से बाहर कर दिया। सुशीला ने भगवान विष्णु की कठिन तपस्या के फलस्वरूप महालक्ष्मी की देह में प्रवेश किया। इसके बाद विष्णुलोक से देवताओं को प्राप्त होने वाले यज्ञफल निष्प्रभावी होने लगे। देवता ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने विष्णु भगवान का ध्यान किया। देवताओं की सारी बात विष्णु भगवान की समझ में आई, उन्होंने महालक्ष्मी के दाहिने अंश से एक मृत्य लक्ष्मी को बनाया इसका नाम “दक्षिणा” रखा। विष्णु भगवान ने दक्षिणा को ब्रह्माजी को भेंट कर दी। ब्रह्माजी ने दक्षिणा का विवाह यज्ञपुरुष से कर दिया। यज्ञपुरुष और दक्षिणा की संतान “फल” होने के बाद विष्णुलोक से यज्ञफल मिलने शुरू हो गए। यह माना जाने लगा कि दक्षिणा देने के बाद ही फल प्राप्ति होती है।
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2. प्राचीन काल में गुरुकुल में पढ़ने वाले सभी छात्र धन सम्पन्न घरों से नही होते थे। जो सम्पन्न होते थे वे गुरुकुल की सेवा अन्न और धन से करते थे, जो निर्धन थे वे गुरुकुल में सेवा सुश्रुषा करते थे। विद्या प्राप्त करने के बाद दीक्षांत समारोह में सभी विद्यार्थी गुरुजी का आभार प्रकट करने के लिए गुरु दक्षिणा दिया करते थे। यह धारणा थी कि गुरु दक्षिणा के बिना विद्या फलीभूत नही होती। प्रत्येक विद्यार्थी अपनी सामर्थ के अनुसार भेंट करता था। ऐसा भी नही था कि गुरु सामर्थ्य से बाहर मांगता हो। एक गुरु ने दीक्षांत समारोह से पहले अपने शिष्य से कहा तुम अन्य वस्तु गुरु दक्षिणा में देने की बजाय, एक खोज करो, जंगल में जाओ और ये पता करो कि क्या कोई वनस्पति ऐसी है जो औषधीय गुणों वाली न हो। विद्यार्थी सर्वत्र गया हर वनस्पति को परखा लेकिन ऐसी कोई वनस्पति नही मिली जिसमे औषधीय गुण नही थे। शिष्य हार थक कर गुरुकुल लौट आया। उसने गुरुजी को यथार्थ बताया। तब गुरुजी ने कहा-
अमंत्रम अक्षर: नास्ति, नास्ति मूलं अनौषिधिम
अयोग्य पुरुष: नास्ति, योजक: तत्र दुर्लभः।।
ऐसा कोई अक्षर नही जो मंत्र न हो और ऐसी कोई वनस्पति नही जो औषधि के काम न आती हो, कोई व्यक्ति अयोग्य नही होता, लेकिन उस व्यक्ति को खोजना कठिन है जो उनके संयोजन की योग्यता रखता हो।
3. किसी श्राद्धकर्म, अनुष्ठान, पूजा या यज्ञ के बाद पुरोहित को उसकी योग्यता और क्षमता के अनुसार पूजकार्य का/ यज्ञफल प्राप्त करने के लिए दिया जाने वाली धन राशि है जिससे पुरोहित संतुष्ट हो जाय। यह एक प्रकार से यजमान द्वारा पुरोहित का आभार प्रदर्शन भी है। पुरोहित कर्म पारिश्रमिक की बजाय मान देय होता है। दक्षिणा देने से पहले गुरु के चरण छू कर आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। पुरोहित श्रमिक नही होता वह सांस्कृतिक ज्ञाता/ विद्वान होता है।
4. भारतीय समाज में बहिन, बेटियां, भानजे- भांजियाँ, असमर्थ असहाय लोगों को भी शुभदिन, शुभायोजन, पुण्यकाल, पूजा, अनुष्ठान के बाद कुछ न कुछ दक्षिणा अवश्य देने की परंपरा है। इन परंपराओं के कारण भारतीय संस्कृति जीवित है।
“यदि आप भी किसी शब्द का अर्थ व व्याख्या जानना चाहते हैं तो अपना प्रश्न “शब्द संदर्भ”में पूछ सकते हैं।”
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