अंग्रेजों के जमाने से नहीं हुआ कोई बदलाव तब से उपेक्षा सह रहे पत्रकार-सुनील मेहता
-नेशनलिस्ट यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट का द्विवार्षिक महासम्मेलन:पत्रकार सुरक्षा का मामला हुआ मुखर
रुद्रपुर,अंग्रेजों के जमाने से पत्रकार कानून में कोई बदलाव नही हुआ,तब से लेकर अब तक पत्रकार उपेक्षा सह रहे हैं। यह बात 19 मार्च को रुद्रपुर में हुए नेशनलिस्ट यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट उत्तराखंड के द्विवार्षिक महासम्मेलन में उत्तराखंड राज्य के सूचना आयुक्त योगेश भट्ट ने कही वे सम्मेलन को बतौर मुख्य अतिथि सम्बोधित कर रहे थे। सम्मेलन में विशिष्ट अतिथि के तौर पर उत्तरांचल प्रेस क्लब के अध्यक्ष अजय राणा मौजूद भी मौजूद थे। नेशनलिस्ट यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के महाअधिवेशन में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कानून,बीमा,आवास निश्चित मानदेय,मान्यता जैसे अनेक मुद्दे छाए रहे।
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एनयूजे के सभी सदस्यों ने पत्रकारों की वर्तमान परिस्थिति पर प्रकाश डाला। उन्होंने पत्रकारों पर हो रहे हमलों की कड़ी निंदा की और पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कानून बनाए की मांग रखी। यूं तो प्रेस को लोकतंत्र को चौथा स्तंभ कहा जाता है और इसकी आजादी और स्वतंत्रता को लेकर तमाम बातें की भी की जाती हैं लेकिन भारत में मीडिया की स्थिति ठीक नहीं है। लगातार गिरते आंकड़ों से पता लगता है कि वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकारों का दमन किया जा रहा है। जिसके लिए पत्रकार सुरक्षा कानून बनाना बेहद जरूरी हो गया है।
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एनयूजे के कार्यक्रम में पत्रकारों पर हो रहे हमले को लेकर तमाम खबरों और सर्वे का भी जिक्र किया गया,जिसमें बताया गया कि अंतरराष्ट्रीय संस्था कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स(सीपीजे) की वार्षिक ग्लोबल इंप्यूनिटी इंडेक्स 2021 से पता चला है कि बीते दस सालों में पत्रकारों की हत्या के 81 फीसदी मामलों में किसी को भी आरोपी नहीं ठहराया गया। रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से 226 हत्याएं पुलिस सुलझा ही नहीं पायी जिस कारण आज तक इनमें दोषी आजाद घूम रहे हैं। सीपीजे ने ये भी कहा कि ये पत्रकार भ्रष्टाचार,संगठित अपराध, चरमपंथी समूहों और राजनीतिक प्रतिशोध के कारण मारे गए। सीपीजे द्वारा दी गयी सूची में भारत 12वें स्थान पर है,जहां पत्रकारों की हत्या के 20 मामले आज तक अनसुलझे हैं।इसी तरह आईपीआई के मुताबिक 1997 से लेकर 2020 के बीच इन 23 साल में 1928 पत्रकारों की हत्या हुई है। इसमें भारत में 1997 से 2020 के बीच कुल 74 पत्रकारों की हत्या हुई। भारत में 2014 से 2020 के बीच 27 पत्रकार मारे गए। जबकि 2009 से 2013 के बीच 22 पत्रकारों की हत्या हुई है।
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आजादी के 75 साल बाद भी लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने वाले पत्रकारों के लिये आज तक राष्ट्रीय स्तर पर कोई सुरक्षा कानून बना ही नहीं। पत्रकारों के लिए सुरक्षा कानून बनाने की पहल अभी तक केंद्र सरकारों द्वारा नहीं की गयी लेकिन भारत के दो राज्य जिनमें महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ प्रमुख रूप से है ने पत्रकारों के लिए सुरक्षा कानून बना दिया है लेकिन बाकी राज्य अभी भी पत्रकारों के लिए उदासीन भूमिका निभा रहे है।
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पत्रकारिता के शुरुआती दिनों की बात करें तो भारत में अखबारों का इतिहास काफी पुराना है। जेम्स आगस्टस हिक्की के द्वारा बंगाल गज़ट नाम से अग्रेजी समाचार पत्र जिसकी शुरुआत बंगाल से 1779 के दौरान हुई जिसने उस वक़्त अंग्रेजों की चूलें हिला दी थी सही मायने में पत्रकारिता की शुरुआत बंगाल गज़ट समाचार पत्र से हुई। समाचार पत्र में सच छापने पर जेम्स ऑगस्ट हिक्की पर फर्जी मुकदमे चलाए गए थे। इसी तरह हिन्दी का पहला समाचार पत्र कलकत्ता से ही पंडित जुगल किशोर शुक्ल के द्वारा 1826 में उदंत मार्तंड नाम से निकाला गया था जिसे कंपनी सरकार का दंश झेलना पड़ा और आंखिरकार समाचार पत्र बन्द कर दिया गया,यह बात ब्रिटिश शासन की थी। ब्रिटिश शासन उसकी दमनकारी नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले पत्रकारों का निर्ममता से दमन करता था, सोचने का विषय है कि इस देश से अँग्रेजी शासन तो चला गया लेकिन हालात आज भी नहीं बदले हैं। देश में मीडिया स्वतंत्र नहीं है क्योंकि सच्ची खबरों को लाने वाले पत्रकार ही सुरक्षित नहीं हैं तो सच्ची खबरों की परिकल्पना ही झूठी प्रतीत होती है। देश में आज भी अंग्रेजो का बनाया कानून पीआरबीपी एक्ट 1867 कुछ मामूली संशोधनों के साथ लागू है।
इस देश में जान हथेली पर रखकर सच को उजागर करने वाले पत्रकारों के न तो हित सुरक्षित हैं न उनके प्राण।
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प्रेस की आजादी को वाक एवं स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के अधिकार 19 (1) क,के तहत रख दिया गया है जो देश में रहने वाले प्रत्येक नागरिक पर लागू होता है। एक पत्रकार जो सच के लिये आवाज उठाता है और लगातार लड़ता है उसे कोई विशिष्ट दर्जा तक नहीं दिया गया है। अगर हम देश के कुछ महानगरों और टीवी पत्रकारिता की बात छोड़ दें तो देश के सूदूर इलाकों में काम करने वाले पत्रकार छोटी-छोटी खबरों के लिये अपने प्राण संकट में डालते हैं। उग्रवाद ग्रस्त या नक्सल प्रभातिव इलाकों में ये पत्रकार किस तरह काम करते हैं कभी किसी ने सोचा भी नही है। ज्यादातर पत्रकार बहुत छोटे स्तर पर अपना अखबार चलाते हैं या स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं। स्वतंत्र पत्रकारों को अख़बार की एक स्टोरी के लिये केवल 100 रुपए या 150 रुपए तक मिलते हैं जबकि एक टीवी स्टोरी के 500 से लेकर 800 रुपए तक मिलते हैं। यदि एक पत्रकार एक महीने में 10 स्टोरी प्रकाशित करवाने में कामयाब होता है तो उस महीने में उसकी आय 1500 रुपए होती है। एक दिहाड़ी मजदूर से भी कम कमाई में वो जान का खतरा उठाए रहता है। इसी के साथ कई समाचार पत्र और न्यूज़ चैनल पत्रकारों को माइक आईडी देकर खबरें तो मँगवा लेते हैं लेकिन वेतनमान की कोई बाध्यता नहीं रहती और राज्य से ये न्यूज़ चैनल करोड़ो का सरकारी विज्ञापन गटक जाते है लें उसमें से पत्रकारों को कुछ भी नहीं देते है जिसका खामियाज़ा पत्रकारों को जान गँवाकर देना पड़ता है।
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संगठन के महाअधिवेशन में सभी पत्रकार साथियों ने एक स्वर में इस बात को माना कि इसी वजह से आज पत्रकार की माली हालत एक मजदूर से भी गयी गुजरी हो गयी है और अगर पूरे देश में केंद्र सरकार पत्रकारों के लिए सुरक्षा कानून बना दे तो यह पत्रकारों के लिए एक संजीवनी का काम करेगा और पत्रकार निर्भीकता के साथ सच्ची खबरों को प्रकाशित भी करेगा और देश विरोधी नीतियों के खिलाफ खुले हृदय से लिखेगा।
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