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शब्द संदर्भ:- (93) कृष्ण
लेखक:- पार्थसारथि थपलियाल
जिज्ञासा
दिल्ली से डॉ. संजय मित्तल ने सामान्य प्रतीत होने वाले शब्द ‘कृष्ण’ के प्रति जिज्ञासा रखी है। उन्होंने यह भी जानना चाहा है क्या कृष्ण का तृष्णा से भी संबंध है?
समाधान
‘कृष्ण’ शब्द भारतीय संस्कृति में भगवान विष्णु के आठवें अवतार 16 कला सम्पूर्ण श्रीकृष्ण के लिए नाम स्वरूप उपयोग होता है। भगवान विष्णु के हज़ार नाम “विष्णु सहस्रनाम” में पढ़ने को मिल जाते हैं। अवतारी पुरुषों के नाम को मान स्वरूप “श्री” शब्द से अलंकृत किया जाता है। श्री का अर्थ है-लक्ष्मीयुक्त। “कृष्ण” का शाब्दिक अर्थ काला होता है। भगवान कृष्ण का रंग सांवला था जो काले रंग के करीब ही है। इसीलिए श्रीकृष्ण को “सांवरे” भी कहा जाता है। वैसे राशिनाम या गुरुजी द्वारा प्रदत्त नाम के पीछे रंग का आधार ढूंढना अनुपयुक्त लगता है। भक्ति मार्ग के लोग अपने प्रभु को जिस रूप में देखना चाहते हैं उन्हें वही अच्छा लगता है।
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग में कंस द्वारा बहिन देवकी के आठवें गर्भ से जन्म लेने वाली संतान के हाथों वध होने की आशंका से मथुरा के कारागार में, देवकी और वासुदेव की संतान के रूप में हुआ था। श्रीकृष्ण का बाल्यकाल में पालन पोषण गोकुल में अपने मौसा नंद बाबा और मौसी यशोदा के घर पर हुआ, उसी घर में भगवान को “श्रीकृष्ण” नाम गर्गाचार्य ने दिया था। अवतारी श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल में पूतना वध, शकटासुर वध, तृणावर्त वध, किशोरावस्था में कंस और शिशुपाल वध उनके उस उद्देश्य को प्रकट करते हैं जिसे गीता में इस रूप में व्यक्त किया गया है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:
अभ्यथानामाधर्मस्य संभवामि युगे युगे।।
इसी बात को रामचरितमानस में इन शब्दों में कहा गया है-
जब जब होइ धर्म की हानि, बाढ़हि असुर अधम अभिमानी
तब तब धरि प्रभु विविध शरीरा हरहि दयानिधि सज्जन पीड़ा।
लीलाधर श्रीकृष्ण के अनेक रूप हैं जो चंद्रमा की सोलह कलाओं की तरह, सांस्कृतिक रूप में आज भी भारत में विद्यमान हैं। नटखट नागर, माखन चोर, बाल क्रीड़ाओं से युक्त, गोचारक, गोपियों संग रास, गोवर्धन पर्वत धारक, आज्ञाकारी शिष्य, उपयुक्त सखा, राजनीति के पुरोधा, दुष्टों के संहारक, कंस के मानमर्दक, शिशुपाल के संहारक, कौरवों और पांडवों के मध्य राजनयिक, कर्मयोग, भक्ति योग और ज्ञानयोग के प्रमुख आचार्य, न्यायप्रिय, धर्मप्रिय, विषाद के समय उत्तम प्रेरक, श्रीमद्भगवदगीता के रूप में सर्वोत्तम ज्ञान प्रदायक, नीतिनिपुण, ब्रह्मज्ञानी, तत्वदर्शी जैसे अनंतगुणों के ज्योतिपुंज हर युग में अनुकरणीय रहेंगे।
कृष्ण और तृष्णा का व्यक्तिगत संबंध मुझे इसलिए उपयुक्त नही लगता क्योंकि तृष्णा का शाब्दिक अर्थ प्यास है जिसे आंचलिक बोलियों में तीस भी कहा जाता है यह तीस पानी पीने की उत्कट इच्छा को व्यक्त करती है। तृष्णा का अर्थ लाभ मिलने पर लोभ बढ़ने के कारण लालच की प्रवृति है। दूसरे शब्दों में कहें तो जो वस्तु हमारे पास नही है उसे पाने की इच्छा तृष्णा है। यह तृष्णा जब पूरी हो जाती है तो उस प्राप्त वस्तु से हमारा अटूट लगाव ही आसक्ति है यह आसक्ति ही मोह है। मोह मुक्ति के मार्ग में कल्याणकारी नही है। तृष्णा तमोगुण प्रधान है। हो सकता है कुछ भाष्यकार कृष्ण को काला बताते हुए तमोगुण प्रधान कह दें। कॄष्ण अनासक्ति योग की बात करते हैं, जिसे गीता में स्थित प्रज्ञ कहा गया है। (इसे अंग्रेज़ी में Attached Detached कह सकते हैं।) श्रीराम सतोगुण प्रधान है तो श्रीकृष्ण रजोगुण प्रधान अवतार हैं।
गीता के 14वें अध्याय में तृष्णा के विषय मे लिखा है-
रजो रागात्मकम विद्धि तृष्णा संग्समुद्भम
तान्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम।। (14/7)।
“यदि आप भी किसी हिंदी शब्द का अर्थ व व्याख्या चाहते हैं अपना प्रश्न शब्द संदर्भ में पूछ सकते हैं।”
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