(आपातकाल विशेष)
लेखक:-पार्थसारथी थपलियाल
26 जून 1975 की सुबह भी आम दिनों की तरह ही शुरू हुई थी। उन दिनों आकाशवाणी, प्रेस के अलावा एक मात्र जनसंचार माध्यम थी। सुबह 8 बजे रेडियो की टाइम पिप्स के साथ ही नज़र और नज़ारा बदल गया था। सुबह के ठीक 8 बजे थे। उन दिनों समाचारों के साथ किसी प्रकार का म्यूजिकल इफ़ेक्ट नही होता था।
ये आकाशवाणी है। अब आप….से समाचार सुनिये। “राष्ट्रपति जी ने देश मे आपातकाल की घोषणा की है, इसमें घबराने की कोई बात नही….यह आवाज़ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की थी। वह देश को बता रही थी कि विपक्ष किस तरह उनकी सरकार को गिराने का प्रयास कर रहा है।
दरअसल 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्चन्यायालय का निर्णय आया था। जिसमें उनकी 1971 में रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से चुनावी जीत को अमान्य कर दिया था और उन पर अगले 6 साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया था। यह घोषणा इलाहबाद उच्चन्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने कोर्ट संख्या 24 में 12 जून 1975 को सुबह 10 बजे की। 1971 में इंदिरा गांधी ने रायबरेली से लोकसभा चुनाव लड़ा था उनके निकटतम प्रतिद्वंदी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजनारायण थे। राजनारायण ने इंदिरा गांधी की जीत को इलाहबाद उच्चन्यायालय में चुनौती दी थी। उन्होंने इंदिरा गांधी पर चुनाव में सरकारी धन का दुरुपयोग और अनियमितताओं का आरोप लगाया था।
इंदिरा गांधी ने इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। उन दिनों सर्वोदयी नेता जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन चल रहा था। बिहार, गुजरात और अन्य राज्यों के छात्र इस आंदोलन में कूद पड़े थे। “सम्पूर्ण क्रांति ही नारा है”-यह उनका जय घोष था। जय प्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी से अपने पद से इस्तीफा देने की मांग की। इसी मांग को लेकर सम्पूर्ण विपक्ष सड़कों पर उतर आया था। लेकिन इंदिरा नही मानी।
24 जून 1975 को सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को सही करार दे दिया, लेकिन इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की अनुमति दे दी। इसी दिन बोट क्लब नई दिल्ली में कोंग्रेस की बहुत बड़ी रैली इंदिरा गांधी के समर्थन में आयोजित की गई थी। दूरदर्शन पर इसकी व्यापक कवरेज न हो पाने से संजय गांधी तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल पर बहुत नाराज थे। जल्दी ही उन्हें राजदूत बनाकर मास्को भेज दिया गया। विद्याचरण शुक्ल को सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया, जो संजय गांघी के दोस्त भी थे।
इंदिरा गांधी के इस्तीफे को लेकर विपक्ष ने अपना आंदोलन तेज कर दिया। 1 सफदरजंग रोड, (इंदिरा गांधी का निवास) पर सन्नाटा पसरा था। अंदर कुछ लोग थे जो चिंतन की मुद्रा में थे। इनमे इंदिरा गांधी, संजय गांधी,(इंदिरा गांधी के छोटे बेटे), आर के धवन (पीए) और बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे। दोपहर में छाए इस अंधेरे में उहापोह के अलावा कुछ भी नही सूझता था। यकायक सिद्धार्थ शंकर रे के चेहरे पर एक चमक कौंधी और तपाक से बोले -“आर्टिकल 352, अर्थात आंतरिक आपातकाल”। इंदिरा ने पूछा क्या करना होगा? सिद्धार्थ शंकर रे बाहर निकलने के लिए खड़े हो गए। बोले सोचता हूँ आकर बताता हूँ। इधर उधर का जायजा लेते हुए रे लंच के बाद 1 सफदरजंग रोड पंहुचे और अपनी योजना बताई।
अब बैठकों का दौर शुरू हुआ। सभी तरह के कानूनी पक्षों पर विचार होते होते रात के साढ़े ग्यारह बजे गए थे। जल्दी से सरकार की तरफ से राष्ट्रपति को संविधान की धारा 352 लगाने का निर्णय अनुमोदन के लिए भेजा गया। जो 25 जून 1975 की रात 12 बजे से कुछ ही मिनट पहले तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को मिला और उन्होंने आपातकाल लगाने के उस काले पन्ने पर हस्ताक्षर कर दिए। देश मे आंतरिक आपातकाल लागू हो गया।
25-26 जून की रात को बहादुरशाह ज़फर मार्ग, जिस पर अधिकतर समाचार पत्रों के कार्यालय हैं, की बिजली काट दी गई। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चौधरी चरण सिंह, मधु दंडवते, राजनारायण, देवी लाल, सरदार प्रकाश सिंह बादल, शांता कुमार, चंद्र शेखर आदि विपक्ष के तमाम नेताओं को मध्य रात्रि बाद उनके स्थानों से उठाया गया और उन्हें जेलों में नज़र बंद कर दिया गया। अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता पर रोक लगा दी।
नागरिकों के मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 14, 21 और 25 को निलंबित कर दिया गया था। समाचार पत्रों पर सेंसरशिप लगा दी गई। सेंसर अधिकारी नियुक्त कर दिए बिना उनकी अनुमति के कुछ भी नही छप सकता था। समाचार पत्रों के संपादकीय और कई अन्य कॉलम खाली रहने लगे थे। पंजाब केसरी के संपादक उन दिनों स्वतंत्रता सेनानी, आर्यसमाजी विचारक लाल जगत नारायण थे। उनका संपादकीय पढ़ने लायक होता था। उनका कॉलम संपादकीय रहित खाली था, केवल बीचों बीच एक शेर छाप था–
न जीने की इजाज़त है, न फरियाद मरने की
मैं घुट घुट के मर जाऊं, ये मर्जी मेरे सैयाद की।
अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया। उनके सदस्यों पर अमानवीय अत्याचार ढाये गए। इन यातनाओं से विभिन्न जेलों में 63 बंदियों की जाने चली गयी।
युवा कांग्रेस और उसके कार्यकर्ता मनमाने कारनामों पर उतर आए थे। संजय गांधी ने पांच सूत्रीय कार्यक्रम चलाया। इसमें एक बिंदु “परिवार नियोजन” भी था। लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सरकारी कर्मचारियों ने अमानवीय अत्याचार किये। अस्सी साल के बूढ़े लोगों की और हनीमून मनाने जाने वाली दंपतियों की भी नसबंदी की गई। एक आदमी की नसबंदी कई कई बार की गई।आपातकाल के बाद लोगों का गुस्सा फूटा। लोगों ने नारे लगाए-
नसबंदी के तीन दलाल-संजय,विद्या, बंसीलाल।
विपक्षी दलों के सभी नेता जेलों में बंद थे। इंदिरा गांधी ने इस दौरान अनेक कारनामे किये। दरअसल इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनने के साथ ही तानाशाही रुख में प्रकट कर चुकी थी। वह इस बात को सिद्ध करना चाहती थी कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में कार्यपालिका ज्यादा महत्व रखती है। 1967 में गोलकनाथ केस में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने निर्णय दिया कि संविधान के मूलभूत तत्त्वों में संशोधन का अधिकार संसद के पास नही है। इस निर्णय को बदलने के लिए 1971 में दुबारा सत्ता में आने पर इंदिरा गांधी ने संविधान में 24वां संशोधन करवाया।
बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में जबलपुर कोर्ट के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी तो मुख्यन्यायाधीश ए एन रे, न्यायाधीश वाइबी चंद्रचूड़,एच एम बेग और पीए भगवती ने सरकार के पक्ष में निर्णय दिया कि सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों को रोक सकती है जबकि जस्टिस एच आर खन्ना ने निर्णय का समर्थन नही किया इसकी नाराजगी जस्टिस खन्ना को तब भुगतनी पड़ी जब 1977 में जस्टिस रे रिटायर हुए तब जस्टिस एच आर खन्ना की वरिष्ठता को लांघ कर जस्टिस एचएम बेग को मुख्यन्यायाधीश बनाया गया।
विरोध स्वरूप सभी वरिष्ठ न्यायाशीषों ने अपने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। आपातकाल के निर्णयों को चुनौती देने वाले सभी संवैधानिक प्रावधानों को खत्म कर दिया। यह व्यवस्था भी की गई राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के किसी भी चुनाव को चाहे पहले के हो या अब हों,कभी भी चुनौती नही दी जा सकती। संविधान में 42वां संविधान संशोधन किया गया। जिसमे संविधान की प्रस्तावना में “धर्मनिर्पेक्ष और समाजवादी” शब्द जोड़े गए।
इस बात की व्यवस्था भी की गई कि कैबिनेट के निर्णयों को अदालत में चुनौती नही दी जा सकती। मीसा और भारत सुरक्षा अधिनियम बनाये गए जिनके तहत किसी को भी अकारण जेलों में बंद रखा जा सकता था और उसे अदालत में चुनौती भी नही दी जा सकती थी। उन लोगों की दास्तान अलग हैं जिन्हें मारा पीटा गया।
इंदिरा गांधी ने जनवरी 1977 में एक खुफिया सर्वे करवाया था जिसके अनुसार उन्हें भरोसा था कि चुनावों में उन्हें 340 से अधिक सीट लोक सभा में मिल सकती हैं। इसलिए 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने लोक सभा भंग करने और लोकसभा चुनाव की घोषणा कर दी। सभी राजनीतिक बंदियों को जेलों से रिहा कर दिया गया। तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में विपक्ष एकजुट हुआ और चुनाव में कोंग्रेस बुरी तरह पराजित हुई। नए राजनीतिक दल जनता पार्टी का गठन हुआ मार्च 1977 में सम्पन्न लोकसभा चुनावों में जीत के बाद जनता पार्टी ने मोरार जी देसाई को प्रधानमंत्री चुना। 21 मार्च 1977 को आपातकाल को हटाया गया।
>>> मंडल रेल प्रबन्धक की मुख्यमंत्री तथा मुख्य सचिव से मुलाकात।