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मृगमरीचिका बना देवभूमि का जीवन

लेखक- पार्थसारथि थपलियाल

सेवानिवृति के बाद अपने गांव में बसने की चाह मन में ही रह गई। जिस गाँव के आंचल में बचपन बीता था वह गांव स्मृतियों में पुकारता है आ जाओ गांव में। कुछ बतियाएंगे, कुछ हंसेंगे कुछ हंसाएंगे, कुछ गुदगुदाएंगे कुछ ठहाका मारेंगे। कभी नाराज होंगे तो कभी मनाएंगे। वे आम के पेड़ों की शाखाएं बूढ़ी और जर्जर सी हो गई हैं तुम्हारी यादों की तरह।

पनघट की रौनकें भी गायब हो गई हैं। सावन के महीने में उमड़ते घुमड़ते बादल जिस तरह रिझा देते थे मन को और रुला जाते थे किसी नव यौवना को, जिसकी देह खेत में होती और उदास मन अपने प्रियतम की स्मृतियों में, ये बातें सूख चुकी हैं, इन हरे भरे खेतों में और घने जंगलों में। बादल अब भी उमड़ते हैं लेकिन वे आंखें नही रही जो सावन से भरती थी।

कल्पना के समंदर में सब कुछ एक ख्वाब की तरह लगता है। करीब तीन साल पहले उत्तराखंड पलायन आयोग के उपाध्यक्ष नेगी जी से चर्चा की थी। उस समय वे बता रहे थे कि अभी मेरा कार्यालय ही स्थापित नही है। वे निजी प्रयासों से आंकड़े इकठ्ठे कर रहे थे। उसी साल (करोना से पहले) मैं एक कार्य योजना के अंतर्गत कुछ गाँवों में भी गया। पौड़ी जिले में जिन गांवों में गया, वहाँ जो लोग अभी रह रहे हैं, जो बात मैंने कॉमन पाई उनमे अधिकतर गांवों मे कहीं 10 और कहीं 20 लोग रहते हैं। महात्मा गांधी नरेगा योजना ने लोगों को अकर्मण्य बना दिया। खेती की बात तो दूर लोग दूध के लिए एक गाय भी नही पाल रहे। मैंने अनेक गांवों में पाया कि वहां गुजरात से पैकेट में पैक अमूल दूध ही चाय के लिए उपयोग में लाया जाता है। चमोली और रुद्रप्रयाग जिलों में अभी जीवन बचा हुआ है।

इस बात को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि शहरों से घर वापसी कर अपना रोजगार स्थापित करने वालों को बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ता है। स्थाई निवासी किसी न किसी तरह की समस्या पैदा कर देते हैं ताकि वह जल्दी से गांव छोड़कर भाग जाय। इसका मुख्य कारण है विकास कार्यों के लिए मिलने वाले बजट को मिलीभगत के आधार पर बंदरबांट। शहर से गया हुआ पढ़ा लिखा युवा हिसाब मांगता है। नियम इतने बनाये गए कि सामान्य जीवन भी कठिन हो गया। अभी उत्तराखंड के मंत्री सुबोध उनियाल जी का वत्तव्य पढ़ा था कि ग्रामीण अपने खेतों में खड़े पेड़ों को अपनी उपयोगिता के लिए काट सकते हैं। अन्यथा आप किसी पेड़ की टहनी भी नही काट सकते, ऐसे नियम हैं।

बरसात में उत्तराखंड में घास की कमी नही होती। अभी किसी ने मुझे एक वीडियो भेजा। बताया गया कि वीडियो चमोली जिले का है। भेजने वाले ने टिप्पणी की है कि एनटीपीसी के कर्मचारी स्थानीय घसेरियों (जंगल से घास काटकर लाने वाली महिलाएं) से घास काटने को लेकर बदसलूकी की। वीडियो में दिखाई दे रहा है कि कुछ महिलाओं की पीठ पर घास की पूलियाँ (गठर) है कुछ लोग जो सरकारी ड्रेस में हैं वे महिलाओं का घास छीन रही हैं। कारण जो भी हो वनों से घास काटने पर भी प्रतिबंध। इन बातों को जानकर समझ में आता है कि भेड़,बकरी,गाय,भैंस पालना कितना कठिन है। समझ मे नही आता उत्तराखंड सरकार की घसेरी कल्याण योजना किस मतलब की? साथ ही उत्तराखंड पलायन आयोग,पुनर्स्थापन संयोग में कब बदलेगा?

आये दिन बाघ,गुलदार,भालू,सुअर, बंदर,लंगूर ग्राम वासियों को हर रोज कोई न कोई नुकसान पहुंचा रहे हैं। गाँवों में बच्चे,महिलाएं बहुत ही असुरक्षित हैं। मनुष्य की बजाय जंगली जानवर सुरक्षित हैं। आम जनता रोती रहे कौन पूछता है? हाल ही में एक आईएएस अधिकारी पर छापेमारी में प्राप्त अकूत संपदा इस बात का प्रमाण है कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी चाहे कितनी भी सख्ती बरतें चपरासी से अफसर तक एक ही मंत्र का जाप करते पाए जाते हैं-
देवभूमि की लूट है लूट सके तो लूट अंत काल पछतायेगा जब पद जाएगा छूट।

अभी 2-3 और आईएएस हैं जिनके बारे में जनश्रुतियाँ बहुत तेज़ हैं। पी सीएस अधिकारी तो इसे अपना अधिकार मानते हैं। धन्य मेरा उत्तराखंड तेरी जै जैकार। ऐसी स्थिति में क्या उत्तराखंड से पलायन रुक सकता है?

अदम गोंडवी का एक शेर नज़र है-

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।

उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है,नवाबी है।

कृपया इसे आलोचना न माने। सोचें कि उत्तराखंड कहाँ खो गया है?

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