शब्द संदर्भ:- (86) प्राणप्रतिष्ठा

लेखक :- पार्थसारथि थपलियाल

जिज्ञासा
हरिमोहन कालका से जानना चाहते हैं मंदिरों में जब मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा कर दी जाती है तो मूर्ति सजीव क्यों नही होती?

समाधान

वैदिककाल में आज की तरह मंदिर व्यवस्था नही थी। सनातन संस्कृति जंगलों में,आश्रमों में पल्लवित,पुष्पित हुई। वेदों में आस्था रखनेवाला समाज वैदिक यज्ञ ही किया करता था। ईश्वर के बारे में वेदों की अलग-अलग ऋचाओं में बहुत स्पष्ट लिखा है एकोहम द्वितीयो नास्ति:। मैं एक ही हूँ दूसरा नही। एक:सद्विप्र: बहुधा वदन्ति। एक ही सत्य को लोग अनेक नामों से जानते हैं। न तस्य प्रतिमा अस्ति। ईश्वर की कोई मूर्ति नही है। इसी प्रकार के अन्य सूक्त भी हैं।

मंदिर की आवश्यकता क्यों पड़ी, यह विषय लंबा हो जाएगा। फिलहाल हम मंदिरों में मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करते हैं। सनातन संस्कृति और उससे निकले दूसरे पंथों के मंदिर सकरात्मता, एकाग्रता और ध्यान को केंद्रित करने के ऊर्जा स्थल रहे हैं।

इन स्थलों का चयन वैदिक स्थापत्यकला के जानकार लोग ही वैज्ञानिक आधार पर करते हैं। एक उदाहरण से प्राणप्रतिष्ठा की अवधारणा समझ में आ जायेगी। आप मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं। उसमें बैट्री न हो, नेट न मिल रहा हो तो मोबाइल काम करेगा? नही।

बिल्कुल यही बात मंदिरों के मामले में भी है। मूर्ती तो एक माध्यम है उसे कोई भी नाम दे दिया जाय। मूर्ति तो हमने बनवाई है। हम उस मूर्ति के माध्यम से परम पिता परमात्मा की ही पूजा करते हैं। इसलिए मूर्ति का ऊर्जावान होना आवश्यक हैं। ताकि वह मंदिर में स्थापित मूर्ति ब्रह्मांडीय ऊर्जा को समाहित कर सके। इसलिए मंदिर के शीर्ष कलश और स्थापित मूर्ति का संपर्क बना रहना चाहिए।

प्राणप्रतिष्ठा के लिए आयोजकों के मन और वातावरण में भी सकारात्मकता बनाई जाय। इसके लिए तैयारियां की जाय। पूजा विधान में कुँवारी कन्या के हाथों या उसकी उपस्थिति में प्राणप्रतिष्ठा का कार्य किया जाय तो उत्तम रहता है। पूरी प्रक्रिया में गर्भगृह में पर्दे के पीछे षट्कर्म, शुद्धिसिंचन, दस स्नान, प्राण आवाहन,प्राण प्रतिष्ठा न्यास, प्राण स्थिरीकरण, शोभा श्रृंगार, षोडषोपचार, आरती, नमस्कार और समापन पूजा विधान किया जाता है।

प्राणप्रतिष्ठा के लिए सुयोग्य वेदपाठी विद्वानों और कर्मकांडी पंडितों को आमंत्रित किया जाता है। तीन दिनों से पांच दिनों तक चलने वाले अनुष्ठान में जितने अधिवास करवाये जाएं उतना ही उत्तम माना जाता है। इनमे पंच गव्य, पंचामृत, षडरस, सप्त धातु, सप्त अन्न, धन, वस्त्र, फल, पुष्प, 108 कलशों पर 108 प्रकार की आयुर्वेद की औषधियां आदि अधिवास में उपयोग में लाये जाते हैं।

वैदिक मंत्रों से प्रतिमा (मूर्ति) को प्राणवान बनाया जाता है। प्राणवान का मतलब यह कतई नही है कि मूर्ति उठेगी और आपके साथ चल पड़ेगी। प्राणवान का अर्थ है, देव प्रतिमा को प्राणप्रतिष्ठा कर एक ओरा बनता है। यह इसलिए क्योंकि प्रतिमा/मूर्ति को ऊर्जावान बनाया गया है।

मंदिर ब्रह्मांडीय शक्ति (कॉस्मिक एनर्जी) का सुचालक केंद्र है। इस स्थान से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है, शांति मिलती है, बुद्धि मिलती है, ज्ञान मिलता है। सकारात्मकता मिल जाय तो आदमी बहुत कुछ मानव कल्याण के लिए बेहतर काम कर सकता है।

मंदिर ऊर्जा देनेवाला या सकारात्मक तभी रह सकता है जब तक मंदिर की सात्विकता बनी रहती है। मंदिर प्रभु दर्शन का स्थान होता है, पवित्र भाव और निष्ठावान होकर मंदिर दर्शन करने वाले व्यक्ति में सजता, सरलता, और सकारात्मकता स्वतः संचारित होती है।जाता है। सकारात्मकता ही ईश्वरीय आशीर्वाद है। मूर्ति का सजीव होना यही है कि वह ब्रह्मांडीय ऊर्जा को प्राप्त कर सकारात्मक ऊर्जा (आशीर्वाद) के रूप में प्रदान करती है।

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