मेरी गढ़वाल यात्रा (4) कालरात्रि पूजा

लेखक पार्थसारथि थपलियाल

ज्वालपा धाम की जिज्ञासा जगानेवाले कई पहलू मेरे मस्तिष्क पर कौंध रहे थे कि ज्वालपा की ख्याति के कौन कौन पहलू हैं? नंदा देवी, राजराजेश्वरी,धारीदेवी,सुरकंडा देवी, चन्द्रबदनी आदि से ज्वालपा देवी की कथा भिन्न है। खैर बात करते हैं कालरात्रि पूजन का। ज्वालपा देवी धाम में अष्टमी के दिन कालरात्रि पूजा होती है। इस विषय को पहले लेना चाहता हूँ ताकि समय के साथ बने रहें। ज्वालपा देवी धाम में शारदीय और चैत्र नवरात्रों में दुर्गा सप्तशती का पाठ अवश्य आयोजित किया जाता है। दुर्गा सप्तशती पुस्तक में प्रथम अध्याय से 13वें अध्याय तक 700 श्लोक हैं।

सप्तसती शब्द इसी संदर्भ में है। वैसे कवच, अर्गला और कीलक सप्तसती के मूल अंग हैं। इनमे देवी सूक्त, रात्रिसूक्त, तंत्रोक्त सूक्त बहुत महत्वपूर्ण भाग हैं। इसमें उच्चारण और भाव पर बल दिया जाता है। इस विषय मे यज्ञविधान में बताया गया है कि अज्ञानी, मूर्ख अनपढ़, श्रद्धा रहित व्यक्ति , जिस ब्राह्मण के अंगभंग हो, दांत टूट गए हों, आंखों से ठीक न दिखाई दे, जो एकदम जवान लड़का हो उसे यज्ञकर्म से दूर रखना चाहिए। शक्ति के उपासकों को शाक्त कहते हैं। शाक्त परम्परा में तंत्र शास्त्र के अंतर्गत आती है। अष्टमी को कालरात्रि के दिन यह पूजा विधिवत की जाती है।

इस बार सप्तमी तिथि रात लगभग 11 बजकर 15 मिनट पर समाप्त हो रही थी उसके बाद अष्टमी तिथि थी। अगले दिन अष्टमी का दिन तो था लेकिन रात अष्टमी की नही थी। इसलिये अष्टमी की पूजा 11 अक्टूबर को रात 11.15 बजे से शुरू की गई। आचार्य का दायित्व संम्भाल रहे थे पंडित भास्कर ममगाईं और हस्त क्रिया में सहयोग कर रहे थे पंडित भूषण अंथवाल। मुख्य यजमान (होता) थे श्री रमेश थपलियाल और उनकी वामांगी। तंत्रोक्त विधान से षोडस पूजा की गई।

गणेश पूजन, स्थान देवता, कुल देवता, इष्ट देवता, ग्राम देवता, नवग्रह, षोडस मातृका पूजन , उसके बाद माँ दुर्गा के दशावतार की आवरण पूजा की गई। अंत मे कालरात्रि को प्रसन्न करने के लिए प्रतीकात्मक पेठा की बलि दी गई। अब से 50-60 साल पहले बकरे की बलि दी जाती थी। अब देवी के मंदिरों में यह सूचना लिखी मिल जाती है, जिस पर लिखा होता है यहां बलि देना अपराध है। अंत में विश्वकल्याण जन कल्याण, जीव कल्याण, वनस्पति कल्याण आदि की कामनाएं की गई। आचार्य अपने विषय के पारंगत पंडित थे। यह पूजा रात 1.30 बजे तक चली। नवरात्रि सनातन संस्कृति में शक्ति उपासना का पर्व है।

कालरात्रि पूजा के साथ-साथ देवी के दास ढोल और दमाऊ पर देवी की वार्ताएं गा/बजा रहे थे। एक महिला को देवी का भाव आया। जोर से किलकारी सुनी गई। सब पीछे देखने लगे ढोल की लय-ताल ने दिव्य परिस्थिति उत्पन्न कर दी।
जै बोलो मेरी जै जै भवानी….
जै बोलो मेरी जै भवानी.
तू छै माता महिषासुरमर्दिनी
जै बोलो मेरी जै जै भवानी….
तेरी च माता सिंह की सवारी
जै बोलो मेरी जै जै भवानी…..आदि आदि।

किसी व्यक्ति में देवी भाव आते देखना भी एक रोमांच पैदा कर देता है। धूप देना, जल देना, खड्ग लेकर देवी का नाचना कोई पाखंड नही और न करतब। बिना जाने कुतर्क की बात करनेवाले बहुत मिल जाएंगे। उनका काम ही भारतीय संस्कृति का उपहास करना है। ईश्वर इन वामी, कामी और चमियों को सद्बुद्धि दे। ताकि उलझने की बजाय ज्वालपा देवी धाम के कुछ और पहलुओं की चर्चा कर सकूं।

क्रमशः 5

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