उत्तराखंड चुनाव परिणामों का चौबारा

आज की बात

राष्ट्रप्रथम

पार्थसारथि थपलियाल

उत्तराखंड विधानसभा के चुनाव परिणाम 10 मार्च को सार्वजनिक हो गए। दो तिहाई बहुमत से भाजपा विजयी हुई। कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फिर गया। कांग्रेस की उम्मीद के दो कारण थे-पहला यह कि उत्तराखंड की जनता एक बार भाजपा को लाती है और दूसरी बार कांग्रेस को मौका देती है। दूसरा यह कि कांग्रेस के हरीश रावत एक घाघ नेता हैं, ज़मीन से जुड़े हैं, आम आदमी से दूर नही रहते, जो गुण भाजपाई नेताओं में बहुत कम पाया जाता है। उत्तराखंड कांग्रेस में दमदार नेता थे, लेकिन इनकी अंतरकलह कांग्रेस को ले डूबी। राहुल गांधी निष्प्रभावी रहे बल्कि राहुल को उत्तराखण्ड के मतदाताओं ने कभी गंभीरता से नही लिया। हरीश रावत की उत्तराखंड में मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाने के समझौते ने उनके समर्थकों को बिदका दिया। गोल टोपी पराई लगी।

हरीश रावत का मुस्लिम विश्वविद्यालय की उम्मीद, केजरीवाल और उनकी पार्टी “आप” ने भी लगाई थी, बिल्ली की तरह “छींका टूटने की उम्मीद” उत्तराखंड क्रांतिदल ने भी लगाई थी। “रामभरोसे बैठ के रहो खाट पर सोय” वाली कहावत को उत्तराखंड क्रांतिदल ने चरितार्थ किया। उनके पास इससे बेहतर मौका नही हो सकता था, जब लोग भाजपा और कोंग्रेस से दूरी बनाना चाहते थे। कोई भी राजनीतिक दल तब तक विस्तार नही पा सकता जब तक उसके पास सुनियोजित परिपक्व दीर्घकालिक नेतृत्व व योजना न हो, गाड़ी की गति स्टेयरिंग घूमाने से नही एक्सीलेटर पर दाब से बढ़ती है।

नया विचार नया संचार यदि राजनीतिक दल में नही है तो राजनीति बेईमानी है। उत्तराखंड क्रांति दल को इस कहावत से ढक देते हैं-” बूढ़ा बैल न डटे न हटे”। थोड़ा सा भी प्रयास किया होता तो उक्रांद विजय हो सकता था, जिसे उक्रांद के कर्णधारों ने अपने स्वार्थों के चलते गँवा दिया। “आप” का स्वार्थ अलग किस्म का था। उसे राष्ट्रीय दल बनने का चस्का लगा है। वह अपनी उपस्थिति कुछ राज्यों में वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए दर्ज करती है। आपको माधो सिंह भंडारी का किस्सा याद होगा। माधो सिंह भंडारी जब मलेथा की कूल खोद रहे थे तो उस काल की मान्यताओं के अनुसार कार्य सफलता के लिए अपने पुत्र की बली दे दी थी।

अरविंद केजरीवाल ने इस सफलता के लिए “आप” को उत्तराखंड में खड़ा किया। दिल्ली से मंत्री बनने का ख्वाब पाले अनेक लोगों ने उत्तराखंड में दीदी (बड़ी बहन) भुली (छोटी बहन) का रिश्ता स्थापित करने की कोशिश की, लौंडे लपाडों को दारू खूब पिलाई। अपने स्वार्थ की बलिवेदी पर कर्नल (रि) अजय कोठियाल की राजनीतिक बलि चढ़ा दी। एक होनहार विकल्प के साथ “आप” का यह व्यवहार कोठियाल को लंबे समय तक कसक और चसक देता रहेगा। उत्तराखंड के प्रबुद्ध वर्ग ने उत्तराखंड का रोहिंग्याकरण कराने संबंधी जागरूकता का योगदान भी इसमें एक घातक रहा।

भारतीय जनता पार्टी की राह आसान रही हो, ऐसा भी नही सत्ता विरोधी खामियाजा भाजपा की बड़ी समस्या थी। दो वर्षों के कोरोना काल में सरकार का जनता के साथ उपयुक्त संपर्क भी नही था। भाजपा के नेता जन योजनाओं में सेंध मारने में लगे थे। चाल, चरित्र और चेहरे को महत्व देने वाली पार्टी के अनेक नेता योजनाओं में कमीशनखोरी कर रहे थे। छुटभय्यों को दारू पिलाकर अपना धंधा करते रहे। ऐसे में भाजपा का जितना तब और भी कठिन हो गया जब चुनावी साल शुरू हुआ पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री पद से हटाए गए, चार माह बाद तीर्थ सिंह रावत भी हटे। उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़,उधमसिंह नगर और हरिद्वार में भाजपा के सामने बड़ी चुनौती थी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उत्तराखंड यात्राओं के कारण जनता को डबल इंजन शब्द ठीक लगा। अमित शाह,अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी भरोसे को बढ़ाया। सबसे बड़ा कमाल अंत वाला था। सांसद अनिल बलूनी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की यात्राओं ने भाजपा की हवा बदल दी। यह उत्तराखंड विजय के लिए भाजपा का मास्टर स्ट्रोक था। योगी आदित्यनाथ की ओजस्वी वाणी और हिंदुत्व का मुखर स्वरूप और बलूनी की निष्काम विकास यात्रा लोगों को खूब समझ आई और भाजपा जो हारने वाली थी वह जीत गई।

2024 में लोकसभा चुनाव होंगे। अगले दो वर्ष नए मुख्यमंत्री के लिए चुनौती भरे होंगे। भाजपा को केंद्रीय सत्ता में आने के लिए एक-एक सीट महत्वपूर्ण होगी। उत्तराखंड की पांचों सीट मोदी जी की झोली में डालने की जिसमें हिम्मत हो वह मुख्यमंत्री बने। अब स्थानीय नेताओं को भी चाहिए कि रेत बजरी से ऊपर उठें, अपने होने का प्रमाण प्रस्तुत करें।

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