वंदे मातरम गीत- जो बना स्वाधीनता का जयघोष
-पार्थसारथि थपलियाल
सन् 1857 की क्रांति ने भारतीयों के मन में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध जबरदस्त आक्रोश बढ़ा दिया था। आक्रोशित भावना ने अनेक राष्ट्रभक्तों को अपने उद्गार लिखने को प्रेरित किया। ऐसे लोगों में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय (चटर्जी) भी थे। उन्होंने भारत माता की महिमा में एक गीत लिखा-”वंदे मातरम्”। यह गीत 7 नवंबर 1875 को बंकिम चन्द्र चटर्जी ने लिखा। “वंदे मातरम” भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का सबसे प्रिय,प्रेरक और जनजागरण उदघोष गीत बना। अंग्रेज सरकार की दमनकारी नीति के विरुद्ध जब वन्देमातरम गीत गाते हुए आंदोलन कारियों की टोली जोश से आगे बढ़ती थी,तब अंग्रेज सरकार की पकड़ धकड़,बर्बरता और अधिक बढ़ जाती थी। दूसरी ओर से एक नया गीत सुनने में आता-छीन सकती है नहीं सरकार वंदे मातरम,हम गरीबों के गले का हार वंदे मातरम्।
उस समय भारत में ब्रिटिश शासन अपने दमन नीति के चरम पर था। भारतीय समाज राजनीतिक दीनता, सांस्कृतिक हीनता और गुलामी की मनःस्थिति से जूझ रहा था। बंकिमचंद्र चटर्जी एक शिक्षित, राष्ट्रवादी विचारक और प्रशासकीय अधिकारी थे। वे चाहते थे कि भारतीय समाज को एक ऐसा सांस्कृतिक प्रेरणा-मंत्र मिले,जो उसके भीतर आत्मविश्वास और राष्ट्रीय गौरव की भावना पुनर्जीवित करे। तब “वंदे मातरम्” गीत उन्होंने लिखा। इस गीत को लिखे जाने की एक पृष्ठभूमि यह है कि 1870 के आसपास सरकारी समारोहों में अंग्रेजी गीत “गॉड सेव द क्वीन”..(ब्रिटेन की महारानी के लिए).गाना अनिवार्य कर दिया गया था। अंग्रेजों ने इंडिया के साथ वह किया जिससे भारत की उद्धार संस्कृति को बदला जा सके।
जिन लोगों ने अंग्रेजों के बाद सत्ता संभाली उन्होंने वैसे ही भारत के साथ आजादी मिलने के 60-65 सालों में किया। सत्ता पर काबिज बने रहें, इसके लिए सनातन संस्कृति को समाप्त कर यूरोपीय संस्कृति को स्थापित करने के प्रयास करते रहे। सत्ता का स्वार्थ बहुत हानिकारक होता है। उस दौर में, समय रहते ही बंकिमचंद्र चटर्जी ने राष्ट्र जागरण के लिए गीत लिखा “वंदे मातरम्”। यह केवल दो शब्द नहीं,बल्कि भारतीय आत्मा की शाश्वत पुकार है।
मातृभूमि की वंदना का स्वर
भारत की स्वतंत्रता की दीर्घ यात्रा में यदि किसी एक गीत ने जनमानस को झकझोरा,आत्मबल को जागृत किया और समूचे राष्ट्र को एक भावसूत्र में बाँधा,तो वह गीत था- ‘वंदे मातरम्’। यह गीत मात्र साहित्यिक रचना नहीं,बल्कि राष्ट्रीय चेतना का अमर घोष था। जिस युग में भारतीय समाज अंग्रेज़ी दासता के बोझ तले दबा हुआ था,उसी समय इस गीत ने लोगों में स्वराज्य, स्वाभिमान और समर्पण की भावना भरी।
आनंदमठ और राष्ट्रभाव का उदय
बंकिमचन्द्र चटर्जी जब (1882 में) आनंदमठ नामक उपन्यास लिख रहे थे,उस समय बंगाल पर अंग्रेजी शासन की कठोरता चरम पर थी। समाज में निराशा और भय व्याप्त था। बंकिमचंद्र ने इस उपन्यास के माध्यम से संन्यासियों के एक ऐसे काल्पनिक संगठन का चित्रण किया जो माँ भारती को दासता से मुक्त कराने के लिए संघर्षरत था। उपन्यास में संन्यासी विद्रोहियों को नैतिक नायक के रूप में दर्शाया गया है। बंकिमचंद्र चटर्जी का उद्देश्य धार्मिक संघर्ष नहीं,बल्कि मातृभूमि के प्रति प्रेम था,फिर भी कुछ लोगों ने उपन्यास की कथावस्तु को आधार बनाकर गीत का विरोध किया। जैसे एक पद है
तुमि विद्या,तुमि धर्म,तुमि हृदि तुमि मर्म,त्वं हि प्राणा: शरीरे,बाहुते तुमि मा शक्ति हृदयेश तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गढ़ी मंदिरके मंदिरे मंदिरे।
इस उपन्यास में ‘वंदे मातरम्’ गीत मातृभूमि की स्तुति के रूप में आता है-सुजलां सुफलां,मलयज शीतलाम, शस्य श्यामलां मातरम्…यह गीत भारत माता को प्रकृति और शक्ति स्वरूप दोनों रूपों में दर्शाता है। एक ऐसी माँ जो अन्न देती है,जल देती है और अपने पुत्रों को शौर्य व शक्ति से विभूषित करती है। यह गीत बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1882 में अपने क्रांतिकारी उपन्न्यास आनंदमठ में प्रसंग के उपयुक्त स्थान पर जोड़ा।
दरअसल,आनंदमठ केवल कथा नहीं थी; बल्कि वह भारत की सोई हुई आत्मा का पुनर्जागरण था। बंकिमचंद्र चटर्जी ने देखा कि अंग्रेज़ी शासन ने भारतीयों को स्वाभिमान हीन बना दिया है। देशभक्ति,गौरव और धर्म का भाव मंद पड़ गया था। उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ के माध्यम से जनता के भीतर सुप्त राष्ट्रभाव को जगाने का प्रयास किया। उनके शब्दों में भारतभूमि हमारी माता है- उसकी आराधना ही सच्चा धर्म है। इस प्रकार ‘वंदे मातरम्’ उपन्न्यास में केवल साहित्यिक सौंदर्य के लिए नहीं,बल्कि राजनीतिक और आध्यात्मिक जागरण के लिए आवश्यक था।
दो भाषाओं में एक भावना
वंदे मातरम गीत का एक विशेष पहलू यह है कि यह संस्कृत और बांग्ला,दोनों भाषाओं में लिखा गया है। पहले दो पद मुख्यतः संस्कृत में हैं,जबकि शेष भाग बंगला और संस्कृत भाषा में हैं। बंकिमचंद्र चटर्जी का उद्देश्य था कि यह गीत पूरे भारतवर्ष में सहज समझा और गाया जा सके। संस्कृत ने इसे आध्यात्मिक गरिमा दी,जबकि बंगला ने भावनात्मक सौंदर्य। एक ही भाषा में न लिखने का कारण यही था। पहली बार गाया रवींद्र नाथ टैगोर ने 1896 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे सुर के साथ गाया। वही क्षण था जब यह गीत पूरे देश में एक राष्ट्रीय भावनात्मक प्रतीक के रूप में फैल गया।
1905 में बंग-भंग आंदोलन का युद्धघोष
जब ब्रिटिश सरकार ने बंगाल को दो हिस्सों में बांटने की कोशिश की तभी युवा छात्रों,महिलाओं,नेताओं और क्रांतिकारियों ने जगह जगह सड़कों पर वन्दे मातरम का नारा लगाया, और गीत रूप में भी गया। यह गीत उपनिवेशवाद के विरुद्ध सबसे प्रखर गीत था।
क्रांतिकारी आंदोलनों की आत्मा
भगत सिंह,खुदीराम बोस,चंद्रशेखर आज़ाद,रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां इन सबकी रचनाओं,पत्रों और नारों में वन्दे मातरम की गूंज स्पष्ट मिलती है। क्रांतिकारी दलों के झंडों और कोड-संकेतों में यह नारा लिखा जाता था। अर्थात यह गीत केवल सांस्कृतिक नहीं,बल्कि राजनीतिक संघर्ष का नारा भी बन गया था।
वंदे मातरम पर विवादों का दौर
वन्दे मातरम पर विवाद 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में शुरू हुआ, खासकर उपन्यास आनंदमठ के संदर्भ में। विरोध के प्रमुख तीन कारण बताए जाते हैं। सही तो यह है एक ही कारण तीनों को कवर कर देता है। वह था भारत को देवी समान मानना और उसकी पूजा करना। मुस्लिम लीग का एक वर्ग इसके विरुद्ध था। यह स्थिति 1930 और 1940 के मध्य चर्चित रही।
1937 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच मतभेद तब खुलकर सामने आए जब कांग्रेस ने इस गीत को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने का प्रस्ताव रखा,तब मुस्लिम लीग ने इसका विरोध करते हुए कहा कि मुस्लिम छात्र एवं नागरिक ऐसी रचना नहीं गा सकते जिसमें देवी की पूजा का स्वरूप हो। इसके बाद कांग्रेस ने विवाद से बचने हेतु एक तटस्थ समिति बनाई।
समिति ने बहुत मंथन करने के बाद यह निर्णय लिया कि रवींद्र नाथ टैगोर द्वारा रचित “जन-गण-मन” को राष्ट्र गान के रूप में स्वीकार किया जा सकता है और बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा रचित वंदे मातरम के पहले दो पदों को राष्ट्र गीत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। संविधान सभा ने 24 जनवरी 1950 को “जन गण मन” को राष्ट्र गान और वंदे मातरम् को राष्ट्र गीत के रूप में स्वीकार किया।
वंदे मातरम बना आंदोलनों का प्रेरक गीत
वन्दे मातरम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का वह अमर गीत है जिसने करोड़ों भारतीयों के हृदय में स्वाधीनता की अग्नि प्रज्वलित की। इस गीत को 1906 के कांग्रेस अधिवेशन में भी अत्यंत उत्साह के साथ गाया गया,जिससे यह राष्ट्रीय चेतना का अभिन्न अंग बन गया। क्रांतिकारी संगठनों,अनुशीलन समिति,युगांतर,गदर पार्टी और बाद में भगत सिंह व उनके साथियों द्वारा स्थापित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी (HSRA) की बैठकों और प्रेरणा सभाओं में भी वन्दे मातरम का सामूहिक गायन होता था। क्रांतिकारी इसे अपने संकल्प और बलिदान का मंत्र मानते थे।
भीकाजी कामा ने फहराया वंदे मातरम
अगस्त 1907 में स्वतंत्रता सेनानी मैडम भीखाजी कामा ने जर्मनी में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में जो ध्वज प्रदर्शित किया था उसके बीच में लिखा था “वंदे मातरम्”। यह एक बड़ी चुनौती थी। भीकाजी कामा महान स्वतंत्रता सेनानी थी। लोग उन्हें भारतीय क्रांति की जननी कहने लगे थे। 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में यह गीत जन सभाओं, धरनों और जुलूसों में गूंजता रहा।
वंदे मातरम् बना राष्ट्रगीत
राष्ट्रगान का चयन के लिए आवश्यक था कि उस पर राष्ट्रीय सहमति हो। चूंकि 1930-40 के दशक में वन्दे मातरम पर धार्मिक विवाद उठ चुके थे,इसलिए इसे राष्ट्रगान के रूप में चुनना कठिन था। संविधान सभा की विशेष बैठक (24 जनवरी 1950) में यह तय हुआ कि-जन गण मन राष्ट्रगान होगा और ‘वंदे मातरम्’ राष्ट्रीय गीत (National Song) होगा।
इस प्रकार दोनों को संवैधानिक सम्मान प्राप्त है। भारत सरकार और संविधान सभा ने स्पष्ट किया कि वंदेमातरम गीत के प्रथम दो पद ही गाये जायेंगे। इस गीत को गाने में 65 सेकिंड का समय लगता है। आकाशवाणी की प्रथम प्रसारण सभा का आरंभ विगत 80 वर्षों से होता आया है। यह भी अपने ढंग की परंपरा है।
वंदे मातरम् का 150वीं जयंती वर्ष
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अनेक नारे,गीत और शब्द ऐसे रहे जिन्होंने देशवासियों में आत्मविश्वास और स्वाधीनता-चेतना जगाई। इनमें “वन्दे मातरम” सर्वोपरि है। 2025 में इस गीत की 150वीं जयंती मनाई जा रही है।
इतने वर्षों बाद भी इसका आकर्षण,भावनात्मक उर्जा और राष्ट्रीय महत्व अप्रतिम बना हुआ है, परंतु इस 150 वर्षीय यात्रा में यह गीत इतिहास,संघर्ष,गौरव और विवाद,सबका केंद्र बना रहा। ब्रिटिश सरकार ने इस गीत से भयभीत होकर कई विद्यालयों व सभाओं में इसे प्रतिबंधित किया था।
भारत की संस्कृति का परिचायक गीत
वन्दे मातरम-स्वतंत्रता संग्राम का ध्वज- गीत रहा,देशभक्ति का भाव जगाने वाला सांस्कृतिक प्रतीक बना। यह भारत की सांस्कृतिक पहचान और राष्ट्रीय गौरव का चिरस्थायी आधार बन चुका है। यह गीत भारतीय सभ्यता की उस दृष्टि को प्रस्तुत करता है जिसमें धरती माता है,जल अमृत है,वृक्ष सौंदर्य हैं और प्रकृति राष्ट्र की आत्मा है।
वंदे मातरम् गीत राष्ट्रगान भले न बना,परंतु राष्ट्रगीत के रूप में इसकी प्रतिष्ठा आज भी भारत की आत्मा को स्पंदित करती रहती है। इस वर्ष 7 नवंबर, 2025 को वंदे मातरम गीत को रचे हुए 150 वर्ष हो गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विचार किया कि जिस गीत ने औपनिवेशिक अंग्रेज सरकार को खदेड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उस गीत को सम्मान दिया जाना चाहिए।
यह घोषित किया गया कि 7 नवंबर 2025 से एक साल तक वन्देमातरम वर्ष के तौर पर मनाया जायेगा। यह पूरे वर्ष चलता रहेगा। यह हम सब भारतीयों के लिए यह गौरव की बात है हम वर्षभर किसी न किसी तरह इस गीत से जुड़े रहेंगे,जिसने भारतियों में सोया हुआ स्वाभिमान जगाया। वंदे मातरम।।
