सनातन संस्कृति: चुनौतियों का चिंतन
पार्थसारथि थपलियाल
सनातन संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन,वैज्ञानिक,समन्वयकारी और आध्यात्मिक परंपरा है। यह धर्म के संकीर्ण अर्थ से कहीं ऊपर जीवन- दर्शन,मूल्य-व्यवस्था,ज्ञान-परंपरा और कर्तव्यबोध का समग्र स्वरूप है। युगों से यह अनेक आक्रमणों, वैचारिक संघर्षों,सामाजिक परिवर्तनों और राजनीतिक दबावों से गुजरती हुई आज भी जीवंत है। किन्तु आधुनिक समय में इसके विरुद्ध अनेक प्रकार की प्रवृत्तियाँ, नैरेटिव निर्माण और वैचारिक अभियानों ने चुनौती खड़ी कर दी है।
सबसे पहली चुनौती वैचारिक उपनिवेशवाद की है। आधुनिक शिक्षा और अकादमिक प्रणाली का एक बड़ा हिस्सा पश्चिमी मानकों द्वारा संचालित है,जिसके कारण वेद, उपनिषद,आयुर्वेद,योग,भारतीय दर्शन और लोक परंपराओं को मिथक या अवैज्ञानिक मानकर खारिज किया जाता है। इससे नई पीढ़ी में अपनी ही संस्कृति के प्रति हीनभावना पैदा होती है। इतिहास और साहित्य में सनातन संस्कृति के योगदान को अक्सर कम करके प्रस्तुत किया जाता है,जबकि दोषों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है।
दूसरी महत्वपूर्ण चुनौती राजनीतिक विमर्श से आती है। कुछ राजनीतिक धाराएँ सनातन संस्कृति को बहुसंख्यकवाद के रूप में प्रस्तुत करके उस पर संदेह का वातावरण बनाती हैं। धार्मिक प्रतीक,परंपरा, मंदिर,मठ,उत्सव सभी राजनीति के हथियार बन जाते हैं। इससे सनातन संस्कृति के मूल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्य राजनीतिक शोर-शराबे में दब जाते हैं।
तीसरा बड़ा खतरा विदेशी डीप स्टेट लॉबी और मिशनरी नेटवर्क का है, जो धर्मांतरण,सामाजिक विभाजन और जाति-विमर्श को बढ़ावा देकर भारतीय समाज की एकता को तोड़ने की कोशिश करते हैं। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारतीय परंपराओं को मानवाधिकार-विरोधी बताने की प्रवृत्ति इसी का हिस्सा है।
एक मीठा जहर मनोरंजन उद्योग के माध्यम से परोसा जा रहा है। वेब- सीरीज़,फिल्मों और विज्ञापनों में पवित्र प्रतीकों का उपहास, ऋषि- मुनियों का नकारात्मक चित्रण, परिवार और विवाह जैसी संस्थाओं को दकियानूसी दिखाने की प्रवृत्ति संस्कृति की छवि को कमजोर करती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर नग्नता और अश्लीलता को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके अलावा सोशल मीडिया में फर्जी नैरेटिव, व्यंग्य,अपमानजनक टिप्पणियाँ और मिथ्या प्रचार के माध्यम से सनातन संस्कृति को लगातार निशाना बनाया जाता है। अनाम अकाउंट और विदेशी पोर्टल डिजिटल युद्ध चलाकर भ्रम फैलाते हैं।
शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में भी दशकों तक भारतीय ज्ञान-परंपरा को कम महत्व दिया गया। प्राचीन वैज्ञानिक उपलब्धियाँ,मंदिर व्यवस्था,गुरुकुल, दर्शनशास्त्र,सभी को सीमित रूप में पढ़ाया गया,जिससे सांस्कृतिक जड़ों को पहचानने में कठिनाई हुई।
जातिगत विभाजन को बढ़ावा देने वाला विमर्श भी सनातन संस्कृति को एक संकीर्ण ढांचे में बांध देता है। जबकि यह संस्कृति “एकम सत विप्रा बहुधा वदन्ति” के सिद्धांत पर आधारित है और सामाजिक सुधार की लंबी परंपरा रखती है।
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इन सब चुनौतियों का समाधान केवल संघर्ष में नहीं बल्कि चेतना, ज्ञान,आत्मविश्वास,तथ्यात्मक इतिहास,निष्पक्ष मीडिया,सुधारित शिक्षा-व्यवस्था और सांस्कृतिक पुनर्जागरण में है। सनातन संस्कृति मूलतः सहिष्णु,समावेशी और वैज्ञानिक है। इसलिए इसके विरुद्ध चल रही प्रवृत्तियाँ अस्थायी हैं,किन्तु इनके प्रति जागरूक रहना आवश्यक है। जब समाज अपने इतिहास,ग्रंथों,परंपराओं और मूल्यों को समझकर आत्मविश्वास से आगे बढ़ेगा,तब सनातन संस्कृति न केवल सुरक्षित रहेगी बल्कि विश्व को दिशा भी देगी।
